गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें आशा की नयी किरणेंरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...
समृद्धि के पथपर
संसारकी निन्द्यतम वस्तु है-विचार-दारिद्रय्। विचार-दारिद्रय्ने संसारके अनेक व्यक्तियोंको गरीबीकी श्रृंखलाओंमें जकड़ रखा है, उनमें कुत्सित दासवृत्ति उत्पन्न कर दी है, मन और जीवनमें हीनत्वका विषम अंधकार फैला दिया है। यह एक निश्चित अकाट्य सत्य है कि विचारकी दरिद्रतासे हम दरिद्री बनते हैं और सदैव रहेंगे। दरिद्रताकी दासवृत्ति मनुष्यको सीमाक्रान्त, क्षुद्र, संकुचित एवं निराश बनानेवाली है। भीषण दरिद्रता मनुष्यकी आत्मशक्तियोंको पंगु, विकृत तथा असमर्थ बनाती है।
क्या ही अच्छा हो यदि मनुष्य यह जान जाय कि हम विचारद्वारा दरिद्रतासे मुक्त हो सकते हैं। शुद्ध विचार, संगठित विचार, पुष्ट एवं समृद्ध विचारद्वारा दरिद्रतापर बलिदान होनेवाले अनेक व्यक्तियोंकी रक्षा हो सकती है। वे बहुत अधिक अंशोंमें दरिद्रतासे मुक्ति पा सकते हैं और अपने जीवनको सुखी कर सकते हैं।
दरिद्रताके अनेक कारण हो सकते हैं। लूला, लँगड़ा, अंधा, बहरा यदि दैवी-दुर्विपाकसे दरिद्र रह जाय तो वह तिरस्कारका पात्र नहीं कहा जायगा। दयाका पात्र तो वह भाग्यहीन है जो अपने मिथ्या विचारोंद्वारा संसारकी दरिद्रताको आकर्षित किया करता है, जो अपनी थोथी भावनाओंके द्वारा निज हृदय-पटलपर सब स्थानोंपर दरद्रिता-ही-दरद्रिता अंकित कर लेता है, जिसकी मुख-मुद्रा-विकृत आकृतिपर दरिद्रताकी काली छाया दुःखद स्थिति उत्पन्न करती है। मैं जिस दरिद्रताकी बात कर रहा हूँ वह मनुष्यकी स्वयंकी उत्पन्न की हुई दरिद्रता है। यह दरिद्रता परिश्रम करनेयोग्य होकर आलस्य करनेसे, दुष्ट बर्तावसे, श्रद्धाहीनता, हीनत्वकी भावना, उचित कार्य-पद्धतिके अभावसे, कार्यशैथिल्य या चंचलतासे हो जाती है।
सर्वप्रथम मनुष्यके विचार दरिद्र बनने प्रारम्भ होते हैं। वह दरिद्रव्यक्तिओं की ओर अधिक आकर्षित होता है, उन्हींकी कार्यप्रणाली, उन्हींकी दीन-हीन स्थिति उन्हींकी-सी प्रवृत्तिसे वह क्रमशः मेल करने लगता है। अन्धकार, पतन, भिखमंगे, टूटे-फूटे उच्च महत्त्वाकांक्षाओंको विनष्ट करनेवाले विचार एक ऐसी परिस्थिति
उत्पन्न कर देते हैं, जिनकी विषैली छाया सदा सर्वदा उसके साथ चलती है। अन्तरकी दरिद्रता फिर बाह्याअंगोंमें भी प्रकट होने लगती है। दरिद्रताके विचारोंसे ग्रसित व्यक्तिके मुखपर क्षुद्रता, असमर्थता, विकृति तथा संकुचितताके चिह्न प्रकट होने लगते है। फिर उसकी वस्त्रभूषा इत्यादि सबमें ही दरिद्रताके कीटाणु घुस जाते है, जो उसके निश्चय, संकल्प, इच्छा-शक्तियोंका क्षय कर डालते हैं। ऐसा व्यक्ति यही सोचता है कि मेरे भाग्यमें विधातानेदारिद्रय् ही लिखा है, मैं दरिद्र हूँ और सदैव दरिद्र ही रहूँगा। मेरे लिये संसारमें कुछ नहीं। मैं केवल दूसरोंकी आधीनता, कृपा-इंगितपर ही जी सकता हूँ। यदि किसीने दया करके कुछ दे दिया तो ठीक, अन्यथा मृत्युका मार्ग ही मेरे लिये खुला है। इस प्रकारकी दरिद्र स्थितिमें, दरिद्र विचरोंके वातावरणमें रहनेके पश्चात् उसे दरिद्रासे भय लगने लगता है; दरिद्रता भयंकर प्रतीत होती है; उसे निकट भविष्यमें अपनी दुर्गति होती दिखायी देती है; अन्तःकरणमें कभी शान्त न होनेवाला द्वन्द्व प्रारम्भ हो जाता है। विचार-दारिद्रय् एक दिन उसे असाहसी, क्षुब्ध, डरपोक, भिखारी बना डालता है। वह अपनी शक्तियोंके प्रति शंकित हो उठता है, उसे अपने ऊपर भरोसा नहीं रहता और वह बिलकुल असमर्थ बन जाता है।
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- कथनी और करनी?
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- अभावोंको चुनौती दीजिये
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- आपकी संचित शक्तियां
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- महानताके बीज
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- बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
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- स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
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- लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
- लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
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- आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
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- मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
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- अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
- मानसिक संतुलन धारण कीजिये
- दुर्भावना तथा सद्धावना
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- प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
- जीवन की भूलें
- अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
- ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
- शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
- ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
- शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
- अमूल्य वचन